ज्ञान और भक्ति
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ज्ञान वह प्रकाश है जिसमें सर्प दिखाई देने वाली वस्तु रस्सी के रूप में दृष्टिगोचर हो जाती है और सारे दुखों का क्षण मात्र में नाश हो जाता है किंतु ज्ञान दुर्लभ तथा अत्यंत कठिनता से प्राप्त होता है किंतु भक्ति में प्रेम एवं श्रद्धा तथा असीम ज्ञान का भंडार खुद-ब-खुद प्राप्त होता है तथा एक बार भक्ति आने के पश्चात व्यक्ति उसमें डूबता आनंदित होता चला जाता है।
किंतु ज्ञान इस क्षण है अगले छड़ विस्मृत हो जाता है अतः सुख चाहने वाले श्रद्धालु प्रेम द्वारा प्राप्त होने वाली भक्ति का ही आश्रय लेते हैं। उदाहरण के लिए ज्ञानवान ईश्वर को स्वयं पकड़ता है जबकि भक्ति वाले जीव को ईश्वर पकड़ते हैं तो बताओ हमारी पकड़ मजबूत होगी अथवा ईश्वर की? दूसरा उदाहरण बंदर के बच्चे खुद बंदर को पकड़ते हैं किंतु बिल्ली के बच्चे को बिल्ली खुद पकड़ती है यही ज्ञान एवं भक्ति में अंतर है।
यद्यपि दोनों में ईश्वर से संबंध हो जाता है। जब बच्चा पैदा होता है तो उसे ज्ञान नहीं रहता किंतु उसे मां दूध पिलाती है बच्चे को मां से श्रद्धा एवं भक्ति होती जाती है बाद में उसे वह मां कहने लगता है ज्ञान होने पर। इस प्रकार भक्ति सहज एवं सरल है यदि व्यक्ति में ज्ञान के साथ भक्ति आ जाए तो फिर अहंकार का नाश हो जाता है फिर कहना ही क्या। परमानंद की प्राप्ति हो ही जाती है।
ज्ञान होने से श्रद्धा एवं भक्ति आती है और भक्ति और श्रद्धा होने से भक्ति में ज्ञान स्वयं प्रस्फुटित होता है। हमारे अंदर अनंत ज्ञान का भंडार है किंतु माया से ढके होने के कारण हमने इसे जानने की रूचि ही नहीं रहती है माया अर्थात भ्रम जाल यानी जहां जिस भी वस्तु में सुख ना हो फिर भी उस में सुख दिखाई पड़े तथा जहां दुख ना हो फिर भी आशंका एवं दुख दिखाई पड़े यही माया अज्ञानता ही हमें वहम में डाले हुए हैं हमें पता है कि मेन पावर हाउस से बिजली आती है किंतु हमारी समझ तो अपने घर के बोर्ड तक ही सीमित है जिस प्रकार सिनेमा में काम करने वाले कलाकार इस फिल्म में हीरो बने हैं किंतु अगले फिल्म में विलेन भी बन जाते हैं उसी प्रकार परमात्मा रूपी डायरेक्टर के निर्देश के अनुसार व्यक्तियों वस्तु एवं स्थान समय समय पर हमें सुखद एवं दुखद होते ही रहते हैं इसलिए वास्तविक ज्ञान यही है कि ईश्वर की भक्ति करो जो सुखो का सागर है।
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