अनुभव गम्य ईश्वर
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सर्व शक्तिमान परमपिता परमात्मा समझने का विषय है जो भी दृश्य मान जगत है या उस परम शक्ति मैं ईश्वर की रचना है ईश्वर सर्व भूत में है जिस प्रकार घड़ा कोसा कुल्हड़ गगरी सभी पात्रों में मिट्टी ही प्रधान है और भी कूलर पंखा हीटर सब में विद्युत धारा प्रधान है तथा कुंडल वाली हार माला सब में सोना प्रधान है उसी प्रकार समस्त संसार की वस्तुओं में ईश्वर व्याप्त है। यद्यपि यह वस्तुएं पात्र के अनुसार अलग-अलग महत्व रखती है उसी प्रकार यद्यपि ईश्वर सब में विद्यमान है किंतु पात्र के अनुसार परिणाम दृष्टिगोचर होता है।
हम नाम ही को अनुभव करते हैं जैसे सरकार यहां अमूर्त है इसे हम देखना चाहे तो देख नहीं सकते हैं इसके अंग कार्यपालिका न्यायपालिका व्यवस्थापिका में कार्य करने वाले व्यक्तियों को हम देख पाते हैं बांबे हम देख नहीं पाते मुंबई की बिल्डिंग पार्क स्थान विशेष को ही देख पाते हैं इसी प्रकार हम अपने शरीर में अपना नाम ढूंढे तो मेरे अंग प्रत्यंग ही दिखाई पड़ेंगे नाम नहीं दिखाई देगा क्योंकि नाम तो हमारे सभी अंगो प्रत्यंग के समग्र रूप को प्रदर्शित करता है। इसी प्रकार ईश्वर का विराट रूप या समस्त भौतिक जगत है यदि स्थूल रूप ईश्वर का दर्शन करना चाहते हैं तो जहां तक आपकी दृष्टि जाती है सब ईश्वर में ईश्वर ही है तथा उसमें रूप में समस्त संसार में परमात्मा अंदर से भी विद्यमान रहता है किंतु जिस में रहता है उसी के अनुभव फल देता है। जैसे घड़े को नदी में रखा जाए तो उसके अंदर भी पानी बाहर भी पानी और जब घड़ा बना तो उसके बनते समय मिट्टी में भी पानी ही मिलाया जाता है फिर विचार नहीं है कि ईश्वर जब पात्र के अनुसार ही फल देता है तो वह हमारी मदद कैसे कर सकता है ईश्वर अनेक रूपों का निर्माण कर सकता है हमें जैसा फल देना है उस अनुसार ही रूप बनाकर हमारे समक्ष उपस्थित रहता है। यदि हमारा भाव अच्छा है तो ईश्वर सुख फल देता है ।
यह जीवन नित्य निरंतर चलने और संघर्ष करते रहने का नाम है यह यदि हम निष्क्रिय भी हो जाए तो भी हमें संघर्ष करना ही होता है रोगों से । मानव हृदय पर जब राम नाम का बार बार टकराव करोगे तो जब घर्षण होता है और परमात्मा का उदय हृदय में हो जाएगा जैसे माचिस पर तीली के घर में अग्नि प्रज्वलित हो जाती है।
अच्छा क्या है बुरा कर्म क्या है सभी जानते हैं किंतु अपने प्रकृति के अनुसार व्यक्ति की कर्मों में प्रवृत्ति होती है। जो कर्म संसार को पुष्पित एवं पल्लवित करें वही कर्म ही सत्कर्म है और वही हमारा धर्म है। किंतु जो कर्म संसार को तहस-नहस विनाश करने वाली हो वही अधर्म है। यह सभी को पता है किंतु अच्छा कर्म सत्कर्म करने में मानव की प्रकृत का विशेष योगदान है।
ईश्वर नाम का स्मरण करते रहने से सत्कर्म करने में हमें आनंद आने लगेगा अथवा मेरा सारा कर्म परमात्मा के अनुरूप बनती चली जाएगी अच्छे कर्म में संसार को सुखी करने में जब तक आनंद आने लगे तो समझो आपकी प्रकृति ईश्वर की ओर उन्मुख हो गई है वह दिन दूर नहीं जब आपको आनंद एवं केवल आनंद की प्राप्ति होगी। जय श्री कृष्णा।
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