ब्रह्म या माया दोनों में सत्य क्या है

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  मनुष्य के ऊपर भ्रम या माया का प्रभाव ----- मनुष्य इस संसार में भ्रम या माया में से किसी न किसी से प्रभावित जरूर रहता है ज्यादातर माया से ही प्रभावित रहता है। जब हम माया से संबंधित चीजों का चिंतन करते हैं तो माया हमारे ऊपर हावी हो जाती है। भौतिक जगत की जो भी वस्तुएं हम देख या स्पर्श कर सकते हैं वह सब माया ही हैं। कैसे जाने की हम माया के प्रभाव में हैं----- जिसके चिंतन से हमें लोभ मोह क्रोध भय शोक और अशांति का आभास हो , तो समझ लीजिए की माया का पूरा-पूरा प्रभाव आपके ऊपर है। कैसे जाने की हम ईश्वर के प्रभाव में है----- जो नित्य निरंतर शाश्वत परम आनंद मय है उसका चिंतन जब हम करते हैं तो देखा या छुआ नहीं जा सकता लेकिन, वह अपनी कृपा से अपने होने का एहसास करता राहत है। उसे ब्रह्म के प्रभाव में आनेसे हमें शांति संतोष सुख आनंद तथा निडरता दया परोपकार की भावना प्राप्त  होती रहती है। तो समझो कि हम ईश्वर के प्रभाव में है। अब आप यह समझ गए होंगे कि कब आप ईश्वर के प्रभाव में रहते हैं और कब माया के प्रभाव में रहते हैं और कैसे। जिसका चिंतन आप ज्यादा करेंगे उसके प्रभाव में आप रहेंगे। अब यह आपको ह...

अकड़ में ही जकड़ है


 मोह और माया तथा अहंकार में ही दुखों का मूल समाया हुआ है। यदि नवनिर्माण स्वर्ण आभूषण का होना है तो स्वर्ण को चाहिए कि ना तो वह अग्नि में तपाए जाने से घबराए और ना ही अपने पुराने अकड़ को पकड़कर बैठे अपितु अग्नि में तपने एवं ठोक पीठ के लिए स्वयं को तैयार रहे।

 मिट्टी जब अपने स्वरूप में बदलाव के लिए कुम्हार के हवाले अपने आप को करती है तो कुमार पहले पानी से इसे थपथपाते और तत्पश्चात हाथ से आकार देता है और अग्नि मे पकाता है इतना सब होते ही मिट्टी का अहंकार उसकी अकड़ रूप रंग स्वभाव सब बदल जाता है और सुंदर पका पकाया घड़ा का रूप सामने आ जाता है फिर तो सबके प्यास बुझाने के काम आता है। 

इसी प्रकार स्वर्ण आभूषण भी कष्ट साध्य परीक्षा से पार होते हैं आभूषण माला आदि बनकर सबका चहेता बनते हैं। यदि संसार में सुख समृद्धि एवं सम्मान चाहिए तो स्वयं में नरमी रखिए तथा कठिन से कठिन परीक्षा के लिए तैयार रहिए ध्यान रहे परीक्षा जितनी कठिन होगी कल भी उतना ही आनंद पूर्ण होगा । 

यह तो हो गई अहंकार से दूर रहने की बात अब हम आपको मोह माया त्याग के संबंध में बताते हैं यह जानिए कि सब सुखों का दाता अप्रत्यक्ष रूप से ईश्वर ही है बस वह माध्यम नए-नए चुनता है जैसे जब हम पैदा हुए तब मा जब बड़े हुए तो पत्नी तथा बुजुर्ग हुए तो पुत्र पुत्री नाती नतिनी के देखरेख में जीवन व्यतीत होता है कौन कितना सुख-दुख या जो सुख देने वाला हमारे सामने प्रत्यक्ष दिखता है उसका हमें एहसान मानना चाहिए किंतु मुख्य रूप से कृतज्ञता उस परमपिता परमात्मा के प्रति होनी चाहिए जो हमारे लिए समय समय पर हमारी देखरेख हेतु नाना रूपों में अप्रत्यक्ष रूप से हमारे आनंद का कारण बनता है इस प्रकार अनुभव होने से हमें निराशा से मुक्ति मिलेगी तथा वस्तु विशेष में आसक्ति जाती रहती है मोह माया पर हम विजय पा लेते हैं। 

जैसे बैंक में एक मेंबर के ना रहने से हमारा काम नहीं रुकता क्योंकि मेन मालिक तो मैनेजर है उसी प्रकार एक वस्तु एक व्यक्ति एक स्थान के जाने से हमारे सुख में कमी नहीं आती क्योंकि मन तो परमात्मा है जब तक हम हमारा ईश्वर हमारे हमसे खुश हैं आनंद ही आनंद रहता है। माया तो भ्रम है जिस वस्तु से जो ना होने वाला हो वह भी उसमें हमें दिखाई देते  हैं जैसे पतंगों को दीपक में सुख दिखाई पड़ता है मृग को तेज धूप में जल दिखता है संसारी जीव को वैभव धन में सुख दिखाई देता है जबकि वास्तविकता तो यह है कि संसार में सुख दुख दोनों ही हैं और बस इसी बात का ठीक से अभ्यास हो जाने पर हमें हमारा जीवन आसान लगने लगता है और हमारे ऊपर पड़ा माया का पर्दा भी फटने लगता है और हम स्वयं को जीत पाते हैं और यह सत्संग के संग तथा ईश्वर भजन से ही संभव है। जय श्री कृष्णा मेरे लेख का उद्देश्य आपके जीवन में प्रकाश डालना है मैं अपने नए प्रयास के साथ अपने नए लिखने मिलूंगा तब तक के लिए नमस्कार।

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