मनुष्य और भगवान का संबंध कैसा होता है ?
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जीव जब ईश्वर में लीन होता है और अपने आप को आत्मा में और आत्मा में परमात्मा का दर्शन करने लगता है तो यही अध्यात्म कहलाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से जगत जीव जीव और परमात्मा क्या है देखिए
जीव परमात्मा का ही अंश है इसे भी सुख ही अच्छा लगता है परमात्मा स्वयं जो आनंद का ही स्वरूप है, आत्मा भी इस परमात्मा के ही अनुरूप होकर उसी में मिल जाती है या यह कहिए कि मिलना चाहती है।
सवाल यह उठता है कि जब आत्मा और परमात्मा दोनों सुख स्वरूप ही है तो जीव दुखी क्यों है उत्तर है आत्मा और परमात्मा के बीच में भ्रम उत्पन्न करने वाली माया द्वारा जगत को बना दिया गया है माया का कार्य है जो वस्तु जैसी ना हो वैसी दिखाना अब आप ही देखिए संसार द्वंद भ्रम में है अर्थात यहां के प्रत्येक दिखाई देने वाले जो भी भौतिक पदार्थ है जड़ या चेतन जो भी हैं सुख और दुख दोनों से भरे हुए हैं।
किंतु माया ने जीव की बुद्धि में ऐसा भ्रम पैदा कर दिया है कि वह हर वस्तु में सुख और सुख ही देखता है और जब उसे सुख नहीं मिलता तो वह दुखी हो जाता है और इसके बाद दूसरी वस्तु में सुख की खोज करता है थोड़ा बहुत सुकून मिल भी जाता है लेकिन उससे अधिक दुख ही मिलता है।
माया भी दो है एक माया है जोकि अविद्या माया है हमें संसार समुद्र में डुबोती चली जाती है और हम 8400000 योनियों में भ्रमण करते रहते हैं सुख तलाशते रहते हैं किंतु सुख मिलता नहीं और हम बढ़ते चले जाते हैं दूसरी माया है विद्या माया जो हमें इस संसार सागर से बाहर निकाल कर जब तक इस संसार में है तब तक इस संसार में डूबने नहीं देती है।
और जब अंत आता है तो ईश्वर के परमधाम में पहुंचाती है और जहां से दोबारा संसार में आना नहीं होता तथा सर्वथा आनंद ही आनंद रहता है।
जैसे ताले की चाबी एक तरफ घुमाने से ताला खुलता है और दूसरी तरफ घुमाने से बंद हो जाता है।
हमने संसार की तरफ अपने मन को बहुत लगाया अब जरा ईश्वर की तरफ अपना मन लगाकर देखते हैं कि क्या है ईश्वर कैसे हैं कैसे उसे वश में किया जा सकता है ईश्वर परम शक्तिशाली परम सुंदर परम बुद्धिमान परम दयावान है।
ईश्वर परम प्रेमी है कुछ कमी नहीं है ईश्वर को किसी भी प्रकार हम वश में नहीं कर सकते केवल ईश्वर असीम प्यार और भाव के द्वारा जीव के वश में हो जाते हैं उन्हें हमारे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है हमारे अंदर अहंकार ना हो हमारे भाव ही प्रेम असीम हो।
बस भगवान वश में हो जाते हैं।
अभिमान ----- किस वस्तु का अभिमान सारी वस्तु क्षणभंगुर है शरीर भी स्थाई नहीं है नित्य परिवर्तनशील है और जो है भी उसमें र्मांस मज्जा गंदगी के अलावा कुछ नहीं है केवल विचार भाव सारे भरे हुए हैं यदि कुछ उन्नत है तो वह प्रेम है और इसी भाव पर ईश्वर प्रसन्न होते हैं।
अन्यथा किसी भी चीज पर उनका कोई स्वार्थ नहीं है हम अच्छे बन रहे हैं इसी में ईश्वर प्रसन्न है।
नमस्कार दोस्तों मैं अपने नए लेख में मिलूंगा जय श्री कृष्ण।
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